वांछित मन्त्र चुनें

त्रीणि॑ श॒ता त्री स॒हस्रा॑ण्य॒ग्निं त्रि॒ꣳशच्च॑ दे॒वा नव॑ चासपर्यन्। औक्ष॑न् घृ॒तैरस्तृ॑णन् ब॒र्हिर॑स्मा॒ऽआदिद्धोता॑रं॒ न्य᳖सादयन्त ॥७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रीणि॑। श॒ता। त्री। स॒हस्रा॑णि। अ॒ग्निम्। त्रि॒ꣳशत्। च॒। दे॒वाः। नव॑। च॒। अ॒स॒प॒र्य॒न् ॥ औक्ष॑न। घृ॒तैः। अस्तृ॑णन्। ब॒र्हिः। अ॒स्मै॒। आत्। इत्। होता॑रम्। नि। अ॒सा॒द॒य॒न्त॒ ॥७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:7


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कारीगर विद्वान् क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (त्रिंशत्) पृथिवी आदि तीस (च) और (नव) नव प्रकार के (च) ये सब और (देवाः) विद्वान् लोग (त्रीणि) तीन (शता) सौ (त्री) तीन (सहस्राणि) हजार कोश मार्ग में (अग्निम्) अग्नि को (असपर्य्यन्) सेवन करें, (घृतैः) घी वा जलों से (औक्षन्) सीचें, (बर्हिः) अन्तरिक्ष को (अस्तृणन्) आच्छादित करें, (अस्मै) इस अग्नि के अर्थ (होतारम्) हवन करनेवाले को (आत्, इत्) सब ओर से ही (नि, असादयन्त) निरन्तर स्थापित करें, वैसे तुम लोग भी करो ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो शिल्पी विद्वान् लोग अग्नि, जलादि पदार्थों को यानों में संयुक्त कर उत्तम, मध्यम, निकृष्ट वेगों से अनेक सैकड़ों, हजारों कोस मार्ग को जा सकें, वे आकाश में भी जा-आ सकते हैं ॥७ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

शिल्पिनो विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

(त्रीणि) (शता) शतानि (त्री) त्रीणि (सहस्राणि) सहस्रक्रोशमार्गम् (अग्निम्) (त्रिंशत्) पृथिव्यादीन् (च) (देवाः) विद्वांसः (नव) (च) (असपर्यन्) सेवेरन् (औक्षन्) सिञ्चरेन् (घृतैः) घृतादिभिरुदकेन वा (अस्तृणन्) आच्छादयन्तु (बर्हिः) अन्तरक्षिम् (अस्मै) अग्नये (आत्) अभितः (इत्) एव (होतारम्) हवनकर्त्तारम् (नि) नितराम् (असादयन्त) स्थापयन्तु ॥७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा त्रिंशच्च नव च देवास्त्रीणि शता त्री सहस्राण्यग्निमसपर्यन्, घृतैरौक्षन् बर्हिरस्तृणन्नस्मै होतारमादिन्न्यसादयन्त तथा यूयमपि कुरुत ॥७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये शिल्पिनो विद्वांसोऽग्निजलादिपदार्थान् यानेषु संप्रयोज्योत्तममध्यमनिकृष्टवेगैरनेकानि शतानि सहस्राणि क्रोशान्मार्गं गन्तुं शक्नुयुस्तेऽन्तरिक्षेऽपि यातुं समर्था जायन्ते ॥७ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे कारागीर अग्नी, जल इत्यादी पदार्थांना यानांमध्ये संयुक्त करून कमी, मध्यम व अधिक वेगपूर्ण रीतीने शेकडो, हजारो कोसांचा (मैलांचा) मार्ग आक्रमू शकतात ते आकाशात ही जा ये करू शकतात.